नौकरशाह कमियों के प्रबंधन वाली सोच से बाहर आएं


प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों वरिष्ठ नौकरशाहों से मीटिंग की। इसमें उन्होंने कमी के प्रबंधन से निकलकर प्रचुरता प्रबंधन की मनोदशा में आने को कहा। उनकी नाराजगी थी कि गरीबों के लिए चल रही योजना के नाम पर ब्यूरोक्रेसी प्रचुर उत्पादन से लाभ लेने की मानसिकता में नहीं आ रही है। पीएम की बात सच है। आज देश का अनाज निर्यात हो रहा है, मशीनरी-खनिज विदेश जा रहे हैं। लिहाजा इस अवसर को पूरी तरह आर्थिक मजबूती के लिए इस्तेमाल करना होगा। अफसरों से इस बात को कहने के पीछे एक और कारण यह भी था कि सिस्टम में व्याप्त अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार कहीं इस निर्यात के दौर में देश की साख पर बट्टा न लगाए। ऐसा देखने में आया है कि अनाज के निर्यात में भी कई बार गुणवत्ता से समझौता किया जाता है और किसानों व भारतीय निर्यातक के बीच की कड़ी शोषणकारी बन जाती है। बैठक में वित्त की समझ वाले कुछ अफसरों का कहना था कि गरीबों-किसानों के मद में दिया जाने वाला व्यय ज्यादा दिन नहीं चला सकते। लेकिन कृषि उत्पादों की प्रचुरता, औषधि निर्माण के लिए मूल तत्वों के देश में उत्पादन और आयुध निर्माण के बाद भारत निर्यात की नई संभावनाओं की ओर देख सकता है, बशर्ते ब्यूरोक्रेसी निर्यात में नैतिकता और गुणवत्ता सुनिश्चित करे।

Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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दागी जनप्रतिनिधि
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यह संतोषजनक तो है कि सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों को तेजी से निपटाने की मांग वाली याचिका स्वीकार कर ली, लेकिन बात तब बनेगी, जब ऐसे कोई निर्देश दिए जाएंगे, जिससे ऐसे मामलों का निस्तारण एक तय अवधि में हो सके। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि दागी छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि राजनीतिक दल आपराधिक इतिहास वालों को चुनाव मैदान में उतारने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेते हैं। उन पर निर्वाचन आयोग के इस निर्देश का कोई असर नहीं पड़ा कि उन्हें यह बताना होगा कि उन्होंने आपराधिक छवि वालों को प्रत्याशी क्यों बनाया? इस सवाल पर राजनीतिक दल यही जवाब देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं कि ऐसे प्रत्याशी चुनाव जीतने की क्षमता रखते हैं। निर्वाचन आयोग इस जवाब के आगे इसलिए बेबस हो जाता है, क्योंकि उसके पास यह अधिकार ही नहीं कि वह आपराधिक इतिहास वालों को चुनाव लड़ने से रोक सके। वास्तव में यह निर्देश उसी तरह निर्थक साबित हुआ, जिस तरह वह व्यवस्था नाकाम हुई, जिसके तहत उम्मीदवारों को यह बताना होता है कि उनके खिलाफ कितने मामले चल रहे हैं? यह एक यथार्थ है कि औसत मतदाता इस तरह के विवरण पर गौर नहीं करता। इसका एक कारण यह है कि दागी नेता यह प्रचार करते रहते हैं कि उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया। दागी छवि वाले जनप्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या इन निर्देशों की निर्थकता को ही बयान करती है।
दो वर्ष पहले आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों और विधायकों की सख्या 4122 थी, जो अब बढ़कर 4984 हो गई है। ऐसा तब हुआ है, जब बीते चार वर्षो में 2775 मामलों का निपटारा किया जा चुका है। इसकी भी अनदेखी न करें कि हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में संगीन आरोपों से घिरे माफिया किस्म के कुछ नेता भी चुनाव जीत गए। इनमें से कुछ तो जेल में बंद होने के बाद भी जीत हासिल करने में समर्थ रहे। आखिर यह लोकतंत्र का उपहास नहीं तो और क्या है? सुप्रीम कोर्ट को इस विडंबना पर भी ध्यान देना होगा कि किसी कैदी को वोट देने का तो अधिकार नहीं, लेकिन वह चुनाव लड़ सकता है। आखिर आपराधिक मामलों का सामना करने वालों को यह अधिकार क्यों मिलना चाहिए ? इस तरह सवाल यह भी है की निर्वाचन आयोग की यह मांग क्यों नहीं सुनी जा रही कि कम से कम संगीन आरोपों का सामना कर रहे उन लोगों को तो चुनाव लड़ने से रोका जाए, जिनके खिलाफ आरोप पत्र दायर हो चुका हो?
Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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नारीवादियों का दोहरा जीवन
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इन दिनों अभिनेत्री और अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर का एक फोटो वायरल हो रहा है। वह अपना बेबी बंप दिखा रही हैं। यानी जल्दी ही मां बनने वाली हैं। इस खबर को मीडिया ने भी महत्व दिया। अतीत में अनुष्का, फरहा खान, करीना कपूर आदि भी ऐसा कर चुकी हैं। एक समय ऐसा रहा है, जब महिला को अपने मां बनने के चिन्हों को छिपाना पड़ता था। इसे लज्जा से जोड़ा जाता था। इन दिनों ऐसा नहीं है। मां बनना किसी भी स्त्री का ऐसा गुण है, जो किसी पुरुष के पास नहीं। इससे सृष्टि चलती है। सृष्टि न हो, अगली पीढ़ी न हो तो दुनिया नहीं चलेगी, लेकिन इसी मां बनने को निहित स्वार्थो ने अर्से से स्त्री की कमजोरी के रूप में व्याख्यायित किया है, परंतु स्त्रियां अब अपने गर्भ में पल रहे शिशु को दुनिया को दिखाना चाहती हैं तो इसमें बुरा भी क्या है?
पिछले कुछ दिनों से कथित प्रगतिशील स्त्रियों का एक समूह कह रहा है कि बच्चे उनकी दुनिया और तरक्की को रोक देते हैं, इसलिए उन्हें वे नहीं चाहिए। वे क्यों उनकी जिम्मेदारी उठाएं और अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष गंवा दें? यह विचार न केवल विदेश में, बल्कि इन दिनों अपने देश में भी खूब प्रचारित किया जा रहा है। महिलाओं को बताया जा रहा है कि तुम परिवार की जिम्मेदारी क्यों उठाओ? बच्चे क्यों पालो? तुम अपने पांवों पर खड़ी हो। घूमो, फिरो, मौज करो। पैसा है तो किसी और बात की चिंता क्यों? जिम्मेदारी या कर्तव्य को बहुत वर्षो से एक बोझ की तरह प्रचारित किया जा रहा है, जबकि हम जानते हैं कि जिम्मेदारी से हम बच नहीं सकते। वह चाहे परिवार चलाने और बच्चे पालने की जिम्मेदारी हो या नौकरी की। अपने दम पर रहने की जिम्मेदारी उठाना भी कोई आसान काम नहीं है। इसके अलावा जब भी कोई आपदा आती है, अक्सर हम दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वे मदद का हाथ बढ़ाएं। हमारी जिम्मेदारी उठाएं, लेकिन सोचिए कि अगर विचार यह बन चला हो कि हम क्यों किसी की जिम्मेदारी उठाएं तो फिर दूसरा भी आपकी जिम्मेदारी क्यों उठाएगा?
इस विचार के बरक्स जब मां बनने वाली सोनम कपूर की तस्वीर दिखती है अथवा अनुष्का, करीना या माधुरी दीक्षित अपने बच्चों के बारे में बातें करती हैं तो लगता है कि ये ही तो वे स्त्रियां हैं, जिन्हें मीडिया के बड़े हिस्से ने आज की सशक्त स्त्री के रूप में पेश किया है। इन्हें ही युवा लड़कियों को इस रूप में बताया गया है कि ये ही हैं, जो आज की सशक्त महिला हैं। मंच पर माइक हाथ में लिए इन स्त्रियों ने समय-समय पर ऐसे बयान भी दिए हैं। कभी सोनम कपूर ने कहा था कि वह अल्ट्रा फेमिनिस्ट यानी अति नारीवादी हैं। हालांकि उन्होंने विवाह भी किया और अब मां भी बनने वाली हैं। अनुष्का, दीपिका, प्रियंका चोपड़ा, करीना आदि ने भी विवाह किया है। इनमें से जो मां बनीं उनकी बच्चों को गोद में उठाए, उनके कपड़े बदलते तस्वीरें भी छपती रहती हैं। वे अक्सर ऐसे बयान भी देती रहती हैं कि उनका परिवार उनकी प्राथमिकता है। वे अपने बच्चों को अच्छा नागरिक बनाना चाहती हैं।
ये बातें अच्छी भी हैं। अगर परिवार है, बच्चे हैं तो आपके अलावा कोई और उनकी जिम्मेदारी क्यों निभाएगा, लेकिन देखा गया है कि ये अभिनेत्रियां जब मंच पर होती हैं, तब जो बातें कह रही होती हैं, उसके उलट अब जीवन में दिख रही हैं। इनकी कथनी-करनी में भला ये दोहरापन क्यों? अपने बच्चों के लिए तो वे एक जिम्मेदार मां बनना चाहती हैं। उनकी देखभाल करनी हो तो शूटिंग तक कैंसिल कर देती हैं। उन्हें पालना-पोसना अपना कर्तव्य समझती हैं, मगर जो उन्हें सुनती हैं, उन्हें बिल्कुल उलटा ज्ञान देती हैं। ऐसा भला क्यों? यदि परिवार और बच्चे उनके लिए जरूरी हैं, वे ही उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं तो साधारण महिलाओं को इनसे दूर भागने, अकेलेपन और आजादी का शहद लिपटा ज्ञान क्यों देती हैं? आम महिला को अकेलेपन की सुनहरी तस्वीर क्यों दिखाती हैं? परिवार न बसाने का ज्ञान क्यों देती हैं? इसे सशक्तीकरण की पहचान क्यों बताती हैं? दूसरी ओर अपने लिए पति, बच्चे, परिवार भी चाहती हैं। अच्छी बहू, अच्छी मां, अच्छी पत्नी, अच्छी बेटी के टैग भी चाहती हैं। ऐसा ज्ञान क्यों, जिस पर वे खुद भी यकीन नहीं करतीं? यानी कि घर में कुछ और, मंच पर कुछ और। महिलाओं के जीवन में जो दुख हैं, परेशानियां हैं, अशिक्षा है, ससुराल तो छोड़िए अपने माता-पिता के यहां ही भेदभाव है, बेरोजगारी, दहेज और तरह-तरह की प्रताड़नाएं हैं, क्या उन्हें इसी तरह दूर किया जा सकता है? वास्तव में कहने और करने में यही फासला तो कुछ नहीं बदलने देता। यथास्थिति को बनाए रखता है।
करोड़ों दाम और नाम कमाने वालीं इन ज्ञानवान महिलाओं के जादू में जब साधारण स्त्रियां फंसती हैं तो उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या करें, कहां जाएं? तब ये ज्ञानवान स्त्रियां उन्हें कभी बचाने नहीं आतीं। किसी तरह की आर्थिक और भावनात्मक मदद तो दूर की बात है, फोन तक उठाना बंद कर दिया जाता है। पहचानते हुए भी, बेपहचान होने का नाटक किया जाता है। वैसे भी साधारण स्त्री इनकी चिंता के केंद्र में होती भी कहां है। मलाला को याद करें। वह शादी को गैर जरूरी बताती थीं, लेकिन फिर उन्होंने शादी कर ली। जिन मंचों पर अक्सर नामचीन स्त्रियां ज्ञान बांटते नजर आती हैं, वह किसी न किसी उत्पाद की ब्रांडिंग के लिए होता है। अब साधारण महिला की वह आर्थिकी कहां कि वह उन उत्पादों को खरीद सके। अच्छा उपभोक्ता वह है, जो अच्छा खरीदार है। अच्छा खरीदार, खाली जेब नहीं होता।
Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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धधकते वन, सिसकता पर्यावरण
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गर्मी के मौसम की शुरुआत होते ही भारत के विभिन्न राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक 26 मार्च से एक अप्रैल, 2022 यानी एक ही हफ्ते के भीतर उनतीस राज्यों के जंगलों में आग के साठ हजार से भी ज्यादा छोटे-बड़े मामले सामने आ गए। यह बेहद चिंताजनक है।
सात दिन में जंगलों में आग लगने के मध्यप्रदेश में 17709, छत्तीसगढ़ में 12805, महाराष्ट्र में 8920, ओड़िशा में 7130 और झारखंड में 4684 मामले दर्ज हुए। आगजनी से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मिजोरम और बिहार के बड़े जंगल ज्यादा प्रभावित हुए हैं। बड़े जंगलों में मात्र आठ दिनों में आग की 1230 घटनाएं सामने आईं। फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते पारे के साथ जंगलों में आग के हर घंटे औसतन 234 मामले दर्ज हो रहे हैं। गौरतलब है कि हाल में राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में लगी भयानक आग पर कई दिनों की कड़ी मशक्कत के बाद काबू पाया जा सका। जम्मू-कश्मीर के रियासी जिले के अलावा हिमाचल में भी आग से कई एकड़ जंगल तबाह हो गए। मध्यप्रदेश के उमरिया टाइगर रिजर्व में महज दस दिनों में ही वनों में 121 स्थानों पर आग लगी। उत्तराखंड में तो वनों के सुलगने का सिलसिला जारी है, जहां 15 फरवरी से अब तक आग की सैकड़ों घटनाओं में 250 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार गर्मियों में जंगलों में आग तेजी से फैलती है। इस वक्त जिस तरह का मौसम है, उसमें यह खतरा और बढ़ जाता है। इस वर्ष मार्च में वर्षा में 71 फीसदी की कमी दर्ज की गई। यही कारण है कि तेजी से बढ़ते पारे के कारण बारिश की कमी से वनों में छोटे जलाशयों का अभाव हो गया और आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। दरअसल, जंगलों का पूरी तरह सूखा होना आग लगने के खतरे को बढ़ा देता है। कई बार जंगलों की आग जब आसपास के गांवों तक पहुंच जाती है, तो स्थिति काफी भयवाह हो जाती है। पिछले साल उत्तराखंड के जंगलों में लगी ऐसी ही भयानक आग में अल्मोड़ा के चौखुटिया में छह गौशालाएं, लकड़ियों के टाल सहित कई घर जल कर राख हो गए थे और वहां हेलीकाप्टरों की मदद से आग बुझाई जा सकी थी।
जंगलों में आग के कारण वनों के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को भारी नुकसान होता है। प्राणी सर्वेक्षण विभाग का मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों में तो आग के कारण जीव-जंतुओं की साढ़े चार हजार से ज्यादा प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। वनों में आग से पर्यावरण के साथ-साथ वन संपदा का जो भारी नुकसान होता है, उसका खमियाजा लंबे समय तक भुगतना पड़ता है और ऐसा नुकसान साल-दर-साल बढ़ता ही जाता है। पिछले चार दशकों में भारत में पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के खत्म हो जाने के अलावा पशु-पक्षियों की संख्या भी घट कर एक तिहाई रह गई है और इसके विभिन्न कारणों में से एक कारण जंगलों की आग रही है। जंगलों में आग के कारण वातावरण में जितनी भारी मात्रा में कार्बन पहुंचता है, वह कहीं ज्यादा बड़ा और गंभीर खतरा है।
देशभर में वन क्षेत्रों में आग से वन संपदा को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए उपग्रहों से सतत निगरानी के अलावा अन्य तकनीकों के इस्तेमाल के बावजूद आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2017 से 2019 के बीच तीन वर्षों के दौरान जंगलों में आग लगने की घटनाएं तीन गुना तक बढ़ गईं। 2016 में देशभर के जंगलों में आग लगने की सैंतीस हजार से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई थीं, जो 2018 में बढ़ कर एक लाख से ऊपर निकल गईं। भारतीय वन सर्वेक्षण ने वर्ष 2004 में अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा के उपग्रह की मदद से राज्य सरकारों को जंगल में आग की घटनाओं की चेतावनी देना शुरू किया गया था। वर्ष 2017 में सेंसर तकनीक की मदद से रात में भी ऐसी घटनाओं की निगरानी शुरू की गई। आग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए जनवरी 2019 में व्यापक वन अग्नि निगरानी कार्यक्रम शुरू कर राज्यों के निगरानी तंत्र को मजबूत करने की पहल भी की गई। हालांकि इन कदमों से कुछ राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं कम करने में थोड़ी सफलता तो मिली, लेकिन उत्तराखंड सहित कुछ राज्यों में हालात अभी भी सुधरे नहीं हैं। तमाम तकनीकी मदद के बावजूद जंगलों में हर साल बड़े स्तर पर लगती भयानक आग जब सब कुछ निगलने पर आमादा दिखाई पड़ती है और वन विभाग बेबस नजर आता है, तो चिंता बढ़नी लाजिमी है।
ज्यादा चिंता की बात यह है कि जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर सरकारों और प्रशासन के भीतर आज भी संजीदगी का अभाव दिखता है। 2019 में उत्तराखंड में लगी भयावह आग के बाद तो राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) को भी सख्त टिप्पणी करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। तब एनजीटी ने कहा था कि पर्यावरण मंत्रालय और अन्य प्राधिकरण वनों में आग की घटनाओं को हल्के में लेते हैं। कई बार जंगलों में आग प्राकृतिक तरीके से नहीं लगती, बल्कि पशु तस्कर भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। मध्यप्रदेश के जंगलों में लोग महुआ निकालने के लिए झाड़ियों में आग लगाते हैं। अगर प्राकृतिक तरीके से आग लगने वाली घटनाओं की बात करें तो मौसम में बदलाव, सूखा, जमीन का कटाव इसके प्रमुख कारण हैं। विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में तो चीड़ के वृक्ष बहुतायत में होते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ इसे वनों का कुप्रबंधन ही मानते हैं कि देश का करीब 17 फीसदी वन क्षेत्र चीड़ वृक्षों से ही भरा पड़ा है। दरअसल, कमजोर होते वन क्षेत्र में इस प्रकार के पेड़ आसानी से पनपते हैं। चीड़ के वृक्षों का सबसे बड़ा नुकसान यही है कि एक तो ये बहुत जल्दी आग पकड़ लेते हैं और दूसरा यह कि ये अपने क्षेत्र में चौड़ी पत्तियों वाले अन्य वृक्षों को पनपने नहीं देते। चूंकि चीड़ के वनों में नमी नहीं होती, इसलिए जरा-सी चिंगारी भी ऐसे वनों को राख कर देती है। अकेले उत्तराखंड के जंगलों की बात करें, तो प्रतिवर्ष वहां औसतन करीब 23.66 लाख मीट्रिक टन चीड़ की पत्तियां गिरती हैं, जो आग के फैलाव का बड़ा कारण बनती हैं। जंगलों में इन पत्तियों की परत के कारण जमीन में बारिश का पानी नहीं जा पाता। हालांकि चीड़ की पत्तियों को संसाधन के तौर पर लेते हुए इनका उपयोग बिजली, कोयला आदि बनाने में करने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन इस दिशा में अभी काफी कुछ करने की जरूरत है।
भारत में जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर आसानी से काबू पाने में विफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि वन क्षेत्रों में वनवासी अब वन संरक्षण के प्रति उदासीन हो चले हैं। इसकी वजह काफी हद तक नई वन नीतियां भी हैं। हालांकि वनों के संरक्षण और उनकी देखभाल के लिए हजारों वनरक्षक नियुक्त किए जाते हैं, लेकिन लाखों हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगलों की हिफाजत करना इनके लिए इतना सहज और आसान नहीं होता। इसलिए जरूरी यही है कि वनों के आसपास रहने वालों और उनके गांवों तक जन-जागरूकता अभियान चला कर वनों से उनका रिश्ता कायम करने के प्रयास किए जाएं, ताकि वे वनों को अपने सुख-दुख का साथी समझें और इनके संरक्षण के लिए हर पल साथ खड़े नजर आएं।
Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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ताकि आसानी से पहचाने जाएं अपराधी
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बहस की शाश्वत परंपरा और अनुभवों से लगातार खुद को बेहतर करते रहना लोकशाही की सबसे बड़ी ताकत है। यही वजह है कि दंड प्रक्रिया पहचान विधेयक 2022 के संसद से पारित हो जाने के बाद भी इस पर बहस का सिलसिला जारी है। यह कानून 1920 के इसी तरह के कानून की जगह लेगा। इसके माध्यम से केंद्र सरकार अभियुक्तों, अपराधियों व अन्य व्यक्तियों का एक केंद्रीकृत डाटाबेस बनाना चाहती है, जिसमें गैर-कानूनी गतिविधियों से जुड़े लोगों की निजी और बायोलॉजिकल जानकारी होगी। इसे संरक्षित करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो को दी गई है। अभिलेख के डिजिटल डाटा को 75 वर्षों तक संरक्षित रखा जा सकेगा, पर यदि कोई अभियुक्त अदालत द्वारा दोषमुक्त कर दिया जाए, तो उसका डाटा नष्ट कर दिया जाएगा। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो इस सूचना को अपराध नियंत्रण करने वाली अन्य एजेंसियों के साथ साझा कर सकेगा। कानून द्वारा अधिकृत प्राधिकारी हाथ, अंगुलियों और पैरों के निशान, फोटो, रेटीना स्कैन, हस्ताक्षर, फोटो व आवाज के नमूने तथा बायोलॉजिकल सैंपल ले सकेगा। बायोलॉजिकल सैंपल में खून व बाल के नमूने, लार व उनका डीएनए विश्लेषण और उसका सैंपल शामिल है। अधिकृत व्यक्ति को ऐसे नमूने इकट्ठा करने का अधिकार होगा। नमूना देने से इनकार करना दंडनीय जुर्म माना जाएगा।
अमेरिका तथा ग्रेट ब्रिटेन में इस तरह का कानून पहले से ही है और उनके केंद्रीय कृत डाटाबेस से अपराध नियंत्रण में बहुत मदद मिली है। अपने यहां महाराष्ट्र में भी यह प्रयोग हुआ है और इससे अपराध पर अंकुश लगाने में उन्हें मदद मिली है। इन्हीं अनुभवों के आधार पर केंद्र सरकार को उम्मीद है कि अपराध नियंत्रण की दिशा में यह कानून मील का पत्थर साबित होगा। बदलते परिवेश में अपराधियों का व्यवहार तथा उनके तौर-तरीके जटिल होते जा रहे हैं, इसलिए इस तरह का डाटाबेस आवश्यक हो गया है, ताकि अपराध से जुड़े व्यक्तियों की पहचान करके उन्हें दंडित किया जा सके।
सन 1920 के कानून में मजिस्ट्रेट या सब-इंस्पेक्टर से बड़े रैंक का पुलिस ऑफिसर ही निजी डाटा इकट्ठा करने का निर्देश दे सकता था। मौजूदा विधेयक में इसका दायरा बढ़ा दिया गया है। अब पुलिस थाने का इंचार्ज, हेड कांस्टेबल और उससे बड़े रैंक के पुलिस अधिकारी तथा जेल के हेडवार्डन को भी ऐसा डाटा इकट्ठा करने के निर्देश देने का अधिकार होगा। कई लोगों को इस पर आपत्ति है, क्योंकि उनका मानना है कि निचली रैंक के अधिकारियों पर चौतरफा दबाव रहता है, उनके लिए निष्पक्षतापूर्ण कार्य करना आसान नहीं होता व अधिकार के दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है। लोगों का यह भी मानना है कि इस तरह व्यक्तिगत डाटा इकट्ठा करने का निर्णय बहुत संवेदनशील काम है। इसमें लोगों की निजता का अधिकार और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगती है, इसलिए डाटा या सूचना एकत्रित करने का निर्देश देने का अधिकार मजिस्ट्रेट या जिम्मेदार पुलिस व जेल अधिकारियों को ही होना चाहिए।
नए विधेयक में दोष सिद्ध अपराधियों, अभियुक्तों और निवारक नजरबंदी में निरुद्ध व्यक्तियों को अपनी पहचान से संबंधित डाटा देने के लिए आदेश दिया जा सकता है। इसके अलावा, उन लोगों की पहचान से संबंधित डाटा भी इकट्ठा किया जा सकता है, जो किसी अपराध के संबंध में गिरफ्तार किए गए हों। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति अभियुक्त नहीं है और तफ्तीश के लिए उसे गिरफ्तार किया गया है, उसका भी सैंपल लिया जा सकता है। मानवाधिकार संगठनों को आशंका है कि ‘मैं’ शब्दावली इतनी व्यापक है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है, क्योंकि सिर्फ शक के आधार पर पकड़े गए लोग भी इसके दायरे में आ जाएंगे और यदि उन्हें बेवजह प्रताड़ित किया जाता है, तो सरकार के खिलाफ बेवजह आक्रोश बढ़ेगा।
अमेरिका, कनाडा व ब्रिटेन में भी इस तरह के कानूनों को लेकर शुरू में वही आशंकाएं थीं, जो आज हमारे यहां जताई जा रही हैं। निजता के अधिकार की भी अपनी एक सीमा है। यह एक व्यक्तिगत अधिकार है, जबकि अपराध पर नियंत्रण करना सामाजिक जरूरत है। समाज का हित और उसके लिए अपराध पर अंकुश लगाना निजी अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमारे देश में अपराधों में दोष सिद्धि की दर अन्य देशों से बहुत कम है। जैसे, अमेरिका में प्रत्येक 100 में से 99.8 अभियुक्त को सजा मिल जाती है, जबकि भारत में बमुश्किल 67 को सजा मिल पाती है। यहां साक्ष्य के अभाव में अधिकतर अपराधी छूट जाते हैं। अपराधियों ने बदलते दौर में अपने तौर-तरीकों में बदलाव किया है। इसलिए उन पर प्रभावी नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक तौर-तरीके अपनाना बहुत जरूरी हो गया है। अपराधी संबंधी डाटाबेस बहुत मददगार साबित होगा।
यहां यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में पुलिस की कार्य-संस्कृति हमसे इतनी अलग है कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कानून लागू करने वाली उनकी संस्थाओं ने पिछले 200 वर्षों में ऐसी कार्य-संस्कृति विकसित की है, जिसमें जान-बूझकर कानून के दुरुपयोग की आशंका धीरे-धीरे नगण्य होती गई है। अपने यहां पेशेवर निष्पक्षता तक पहुंचने में कुछ दशकों का समय लग सकता है। अच्छे कानून या अच्छी व्यवस्थाएं तभी कारगर होंगी, जब हम पुलिस सुधार करेंगे और पुलिस को कानून एवं समाज के प्रति पूरी तरह से जिम्मेदार बनाएंगे। प्रस्तावित कानून की धारा सात में अधिकारियों को सद्भावपूर्वक किए गए कार्य के लिए संरक्षण दिया गया है, किंतु उन्हें दुर्भावनापूर्ण कार्य के लिए दंडित किए जाने के बारे में यह विधेयक मौन है। ऐसे उपाय होने चाहिए कि दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई से आम लोगों को बचाया जा सके। स्वस्थ लोकशाही के लिए यह जरूरी है, ताकि शासन पर जनता का भरोसा कायम रहे।
विधेयक की धारा सात में केंद्र व राज्य सरकारों को इसे लागू करने के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है। धारा नौ में केंद्र को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह इसे लागू करने में आ रही दिक्कतों को दूर कर सकती है। गृह मंत्री ने भी लोकसभा में इस विधेयक को संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास विचार के लिए भेजने का आश्वासन दिया है। उम्मीद है, यह समिति इन त्रुटियों को दूर करके इस महत्वपूर्ण कानून के माध्यम से अपराध नियंत्रण की पहल को आगे बढ़ाएगी।
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धरती, सेहत और भविष्य के लिए मिलकर पहल की दरकार
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कोविड-19 महामारी ने उस तंत्रों की विषमता उजागर कर दी है, जिनमें दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के ही नहीं, दुनिया भर के लोग गुजर-बसर करते हैं। विश्व की 90 फीसदी से अधिक आबादी दूषित हवा में सांस लेती है, जिससे हर साल तकरीबन 70 लाख लोगों की जान जाती है। दक्षिण-पूर्व एशिया में भी 24 लाख लोगों की मौत इससे होती है। हमारी खाद्य प्रणालियां भी स्वास्थ्य के लिहाज से असुरक्षित हैं, जिस कारण लाखों लोगों की अकाल मृत्यु होती है। ये खाद्य प्रणालियां जलवायु संकट और रोगाणुरोधी प्रतिरोध (रोगाणुओं का एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेना) बढ़ाने का काम भी करती हैं।
साल 2020 में दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति के घर पर सुरक्षित पानी का अभाव था, और अल्प-विकसित देशों में 50 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों पर ही स्वच्छ पानी की बुनियादी सुविधा थी। गंदा पानी पीने से गंभीर जलजनित रोग हो सकते हैं और आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायन हमारे शरीर में पहुंच सकते हैं। स्वास्थ्य केंद्रों पर पानी, साफ-सफाई और स्वच्छता के अभाव के कारण स्वास्थ्य सेवाएं भी प्रभावित होती हैं, जिसका विशेषकर महिलाओं व लड़कियों पर प्रतिकूल असर पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि हर साल 1.3 करोड़ से अधिक मौतें उन पर्यावरणीय कारणों से होती हैं, जिनको टाला जा सकता है। उल्लेखनीय है कि कोविड-19 महामारी ने न सिर्फ मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक व वाणिज्यिक फैसलों की असमान प्रकृति को बेपरदा कर दिया है, बल्कि इसने यह भी बता दिया है कि यदि निर्णय लेने की प्रक्रिया पारदर्शी, साक्ष्य आधारित और समावेशी हो, तो लोग उन साहसिक और दूरगामी नीतियों का भी समर्थन करेंगे, जो उनकी सेहत, परिवार और आजीविका की रक्षा कर सके। इसने यह भी बताया है कि मौजूदा व आने वाली पीढ़ियों के लिए समान स्वास्थ्य को प्राथमिकता देकर हम कल्याणकारी समाज बना सकते हैं। ये प्राथमिकताएं हम दीर्घावधि के निवेश, कल्याणकारी बजट, सामाजिक सुरक्षा, कानूनी व आर्थिक रणनीतियों से हासिल कर सकते हैं।
एक ऐसी दुनिया बनाने के लिए, जिसमें सभी के लिए स्वच्छ हवा, पानी और भोजन उपलब्ध हो, हमें खासतौर से पांच प्राथमिकताओं पर काम करना चाहिए। यह ऐसा समाज बनाने के लिए भी आवश्यक है, जिसमें आर्थिक नीतियां शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा दें, जहां शहर रहने योग्य हों और लोगों की सेहत बेहतर बने।
हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, मानव स्वास्थ्य के स्रोत, यानी प्रकृति की रक्षा व संरक्षण। ऐसी नीतियां चाहिए, जो वनों की कटाई को कम करने, वनीकरण को बढ़ावा देने और गहन व प्रदूषणकारी कृषि कार्यों को खत्म करने में मददगार हों, जो हमारी आबोहवा सुधार सकती हों, खाद्य प्रणालियों को मजबूत बना सकती हों और टिकाऊ कृषि व वन प्रबंधन को बढ़ावा दे सकती हों। दूसरी प्राथमिकता, स्वास्थ्य केंद्रों पर पानी व स्वच्छता से लेकर स्वच्छ ऊर्जा तक तमाम जरूरी सेवाओं में निवेश करने की है। बहुक्षेत्रीय जल सुरक्षा योजनाओं को लागू करके और स्वास्थ्य संबंधी नीतियों व योजनाओं में पानी, साफ-सफाई व स्वच्छता को शामिल करके तमाम देश स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं। तीसरी प्राथमिकता, लोगों को तीव्र व स्वास्थ्यप्रद ऊर्जा की तरफ उन्मुख करना है। वायु प्रदूषण की एक बड़ी वजह जीवाश्म ईंधन हैं। ऐसे ईंधन जलवायु परिवर्तन को भी बढ़ाते हैं, जिससे साल 2030 और 2050 के बीच सालाना 2.5 लाख अतिरिक्त मौत होने की आशंका है। हमारे क्षेत्र के देशों ने बेशक अक्षय ऊर्जा के विस्तार में सराहनीय प्रयास किए हैं, लेकिन इसमें और तेजी लाने की दरकार है।
चौथी प्राथमिकता है, स्वस्थ व टिकाऊ खाद्य प्रणालियों को प्रोत्साहित करना। भोजन के अभाव या बीमार करने व उच्च कैलोरी वाले आहार से गैर-संचारी रोग होने का खतरा बढ़ जाता है। इन बीमारियों से दक्षिण पूर्व एशिया में सालाना 92 लाख लोग मरते हैं। और पांचवीं प्राथमिकता है, स्वस्थ व रहने योग्य शहरों का निर्माण। साल 2021 में दक्षिण पूर्व एशिया के पांच शहरों का चयन विश्व स्वास्थ्य संगठन के ‘अर्बन गवर्नेंस फॉर हेल्थ ऐंड वेल-बीइंग इनीशिएटिव’ के लिए किया गया था, जिसका मकसद स्वास्थ्य को बढ़ावा देना और स्वास्थ्यगत विषमताओं को दूर करने के लिए देशों की क्षमताएं बढ़ाना था। साफ है, यह निर्णय की घड़ी है। हमारे फैसले या तो पारिस्थितिक तंत्र को स्थाई नुकसान पहुंचा सकते हैं या फिर एक हरित दुनिया को साकार बना सकते हैं। जाहिर है, अपनी धरती, सेहत और भविष्य की रक्षा के लिए हमें अभी से मिलकर काम करना होगा।