निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था का मंत्र



वित्त वर्ष 2021-22 में भारत का वस्तु निर्यात 400 अरब डालर से अधिक हो जाना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। सेवाओं के निर्यात को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो भारत के कुल निर्यात 650 अरब डालर से अधिक हो जाते हैं। इस प्रकार वित्त वर्ष 2019-20 के 292 अरब डालर के निर्यात की तुलना में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। निर्यात में इंजीनियरिंग, टेक्सटाइल, रत्न एवं आभूषण, केमिकल, दवा और इलेक्ट्रानिक सामानों के साथ-साथ कृषि उत्पादों-चावल, गेहूं, मसाले, चीनी, फल-सब्जी, कालीन, मांस, डेयरी, समुद्री आदि उत्पादों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह एक सकारात्मक बदलाव है, जिसने भारत को निर्यात क्षेत्र में विश्व की अग्रिम पंक्ति के देशों में खड़ा करने का काम किया है। निर्यात बढऩे से देश की विनिमय दर, मुद्रास्फीति, ब्याज दर आदि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। रोजगार के अवसरों का सृजन, विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि, विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन एवं सरकार के राजस्व संग्रह में भी वृद्धि होती है। भारत की जीडीपी में निर्यात की बढ़ती हिस्सेदारी बताती है कि देश आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ रहा है।
कोरोना महामारी के चलते विश्व की वस्तु आपूर्ति श्रृंखला के बाधित होने के बाद दुनिया के देशों द्वारा चीन से दूरी बनाना एवं रूस-यूक्रेन युद्ध भले ही निर्यात वृद्धि के तत्कालिक कारण हों, परंतु सरकार द्वारा किए गए नीतिगत उपायों ने भी निर्यात को बढ़ाने में सार्थक भूमिका का निर्वाह किया है। इसमें बैटरी, इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल्स, फार्मास्युटिकल्स, ड्रग्स, टेक्सटाइल्स सहित 13 क्षेत्रों में निर्यात को बढ़ावा देने के लिए पीएलआइ योजना (उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना) प्रमुख है, जिसके अंतर्गत उत्पादन बढ़ाने पर सब्सिडी दी जाती है। इसी के साथ प्रत्येक जिले में निर्यात क्षमता वाले उत्पादों की पहचान करके जिलों को निर्यात हब के रूप में विकसित करने की नई पहल भी की गई है। गांवों से शहरों की ओर विकास की धारा को बहाने के लिए अब निर्यात को एक बड़ा यंत्र बनाया गया है, ताकि देश निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को हासिल कर सके। एमएसएमई और स्टार्टअप के निर्यात से जुड़े मुद्दों के त्वरित समाधान पर बल दिया जाना समय की मांग है। टैक्स फाइल प्रक्रिया को आसान बनाते हुए डिजिटल प्लेटफार्म को प्रोत्साहन दिया गया है, जिससे समय, ऊर्जा और धन की बचत बढ़ी है। सरकार की नई व्यापार नीति में विभिन्न देशों की व्यापार क्षमता का आकलन कर नए और मौजूदा बाजारों में निर्यात की संभावनाओं को अधिक मजबूत करने पर बल दिया गया है। भारतीय उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार एवं सरकार की प्रतिबद्धताओं का ही परिणाम है कि दुनिया में मेक इन इंडिया ब्रांड पर भरोसा बढ़ रहा है।
यदि हम चीन के निर्यात के साथ भारत की तुलना करें तो भारत के निर्यात बहुत कम हैं। यदि निर्यात में वृद्धि करनी है तो देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की दिशा में तेजी से कार्य करना होगा। विश्व बाजार में गुणवत्तायुक्त उत्पादों की बहुत अधिक मांग है। आज भारत के उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी भी बनाना होगा। आम तौर पर यह मत है कि चीन में श्रमिकों की संख्या अधिक होने से चीनी उत्पादों की लागत कम है। वास्तव में मूल कारण श्रमिकों की संख्या का अधिक होना नहीं, बल्कि चीनी श्रमिकों की उत्पादकता अधिक होना है। चीन का एक श्रमिक भारत के श्रमिक की तुलना में 1.6 गुना अधिक उत्पादन करता है। चीन केवल सस्ती वस्तुओं का ही उत्पादन नहीं करता, बल्कि विश्व के लगभग 60 प्रतिशत ब्रांडेड लक्जरी वस्तुओं का उत्पादन भी करता है। भारत में श्रमिकों की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम को सीधे तौर पर उद्योगों के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जिससे श्रमिकों की उत्पादकता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होने के साथ प्रबंधकीय क्षमता का भी विकास होगा। निर्यातकों को गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा, बल्कि उनकी लागत में भी कमी आएगी। लाजिस्टिक क्षेत्र के विस्तार के लिए केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र को मिलकर काम करना होगा। प्रत्येक राज्य को निर्यात में भागीदारी के लिए सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ विदेशी निवेश को भी आकर्षित करने दिशा में कार्य करना होगा, तभी देश को निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाया जा सकता है।
अर्थशास्त्र का व्यापार सिद्धांत यह मानता है कि जिन वस्तुओं का उत्पादन भारत कम लागत पर कर सकता है, उनका उत्पादन देश में ही करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सेवा क्षेत्र में भारत के उल्लेखनीय निर्यात के दृष्टिगत वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से साफ्टवेयर के क्षेत्र में अपने आप को एकाधिकार के रूप में स्थापित करना चाहिए। इसके अलावा यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राथमिक वस्तुएं-चावल, मसाले, मोटा अनाज, फल एवं सब्जी, मीट, डेयरी और समुद्री उत्पाद आदि के निर्यात व्यापार वृद्धि के स्थाई कारक नहीं बन सकते। निर्यात वृद्धि में स्थायित्व के लिए प्राथमिक उत्पादों के साथ-साथ विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इस के लिए इलेक्ट्रानिक मशीनरी आदि वस्तुओं के निर्यात को बढ़ाने के लिए घरेलू विनिर्माण इकाइयों को मजबूत करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करना होगा। वास्तव में भारत को पांच लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य को हासिल करने में निर्यात महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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अपराधी की पहचान
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आपराधिक मामलों पर नकेल कसने के मकसद से तैयार दंड प्रक्रिया शिनाख्त संशोधन विधेयक आखिरकार संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया। गृह मंत्रालय का कहना है कि इस कानून से पुलिस को अपराधियों की शिनाख्त में काफी मदद मिलेगी और दोष सिद्धि की दर बढ़ेगी। अभी बहुत सारे मामलों में पुख्ता सबूत न होने की वजह से अपराधी छूट जाते हैं। बलात्कार जैसे मामलों में सजा की दर दुनिया के तमाम देशों की अपेक्षा काफी कम है। इसलिए अब आरोपियों के जैविक और शारीरिक नमूने लिए जा सकेंगे, जिससे अपराध के बारे में सही-सही जानकारी मिल सकती है। पर इस संशोधन पर विपक्ष ने कड़ा एतराज जताया और इसे प्रवर समिति या स्थायी समिति में समीक्षा के लिए भेजने की मांग की। कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने इस विधेयक को असंवैधानिक करार दिया, तो दूसरे विपक्षी दलों ने इसे ब्रिटिश कालीन दमनकारी नीति का पोषक बताया। दरअसल, किसी भी व्यक्ति के जैविक आंकड़े दर्ज करना उसकी निजता का हनन माना जाता रहा है। इसीलिए जब यूपीए सरकार के समय आधार कार्ड बनाने की शुरुआत हुई तो तमाम विपक्षी दलों ने उसका विरोध किया था, क्योंकि उसमें आंखों और अंगुलियों की छाप से व्यक्ति की जैविक पहचान दर्ज की जाती है। वही प्रक्रिया अब आरोपियों पर अपनाई जाएगी।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आपराधिक मामलों पर नकेल कसने के लिए समय-समय पर दंड प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत होती है। मगर ऐसे कानून को शायद ही कोई स्वीकार करे, जिससे बेवजह बेगुनाह लोगों को परेशानी का सामना करना पड़े। किसी भी आपराधिक मामले में प्रथम दृष्टया दोष सिद्ध नहीं हो जाता है। कई आरोपियों से पूछताछ और जांच के बाद ही नतीजे पर पहुंचा जाता है। यानी उसमें कई लोग बेगुनाह होते हैं। फिर हर अपराध की प्रकृति अलग होती है। किसी नीति या फैसले के विरोध में प्रदर्शन, तोड़फोड़ करना भी किसी स्तर पर अपराध बन जाता है। संगीन अपराधों की अलग सूची है। इस तरह हर अपराध के मामले में आरोपी के साथ एक जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता। इसीलिए विपक्ष को भय है कि इस कानून के जरिए सरकार बेगुनाह लोगों, विपक्षी नेताओं और लक्षित समूहों के प्रति दमनकारी रवैया अपना सकती है। मगर सरकार ने उनकी आशंकाओं को दूर करते हुए आश्वस्त किया है कि सरकार किसी निर्दोष को परेशान करने के इरादे से यह कानून लेकर नहीं आई है।
दरअसल, जैविक आंकड़ों के दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहती है। कई जगहों पर देखा गया है कि जैविक पहचान के आंकड़े इकट्ठा करके सरकारें आंदोलन आदि करने वालों को प्रताड़ित करने का प्रयास करती रहती हैं। करीब दो साल पहले हांगकांग में विद्यार्थियों के विरोध के समय सरकार ने उनके जैविक आंकड़ों के आधार पर धर-पकड़ कर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू किया था। इसलिए विपक्ष को आशंका है कि भारत सरकार भी कहीं उसी दिशा में न बढ़े। पिछले कुछ सालों में विभिन्न विषयों पर आंदोलन कुछ अधिक देखे जा रहे हैं, इसलिए उन पर नकेल कसने के उपकरण के तौर पर इस कानून का उपयोग न किया जाने लगे। ऐसे में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि उसकी ओर से विपक्ष की आशंकाएं दूर करने के प्रयास किए जाएं। आपराधिक मामलों पर अंकुश लगाए बगैर कानून व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जा सकता, मगर किसी कानून पर लोगों को शक की गुंजाइश भी नहीं होनी चाहिए।
Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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भारत की प्रभावी कूटनीति
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रूस यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत क्या सोचता है, इसे एक बार फिर साफ तौर बताया गया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बुधवार को संसद में जोर देकर कहा कि भारत रूस-यूक्रेन के बीच संघर्ष के पूरी तरह खिलाफ है और तत्काल हिंसा खत्म करने के पक्ष में है। यानी भारत शांति का पैरोकार है। दरअसल, बुका में जिस तरह दो दिन पहले रोंगटे खड़े कर देने वाली रिपोर्ट और तस्वीरें आई, उसके बाद से भारत की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि इस वारदात की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। भारत बुका के मामले में बहुत परेशान है और कत्लेआम की निंदा करता है। बुका के बहाने भारत की प्रतिक्रिया को उसकी विदेश नीति में बदलाव के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है। इससे पहले भारत ने इस तरह की प्रतिक्रिया नहीं दी थी। हालांकि बुका प्रकरण में भारत ने रूस का नाम नहीं लिया, मगर पल-पल बदलते परिदृश्य में भारत का किसी के पक्ष में न जाकर बिल्कुल मध्य में होना, नई कूटनीति की ओर इशारा करता है। शुरुआत से ही भारत ने शांति पर जोर दिया। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव से पृथक रहने का फैसला हो या अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन समेत तमाम यूरोपीय देशों का रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाना हो; भारत ने हमेशा अपने हित को वरीयता दी। बिना किसी डर या दबाव के भारत ने वही किया जो देश की एकता और अखंडता के लिए जरूरी था। वाकई यह बदले हुए भारत की तस्वीर है। इस वक्त दुनिया दो प्रतिद्वंद्वी गुटों में विभाजित हो गई है। ऐसे में भारत मानवता के पक्ष में दृढ़ता से बोल रहा है। विदेश मंत्री जयशंकर ने जिस तरह से बुका में हुई हिंसा को लेकर बयान दिए हैं, वह रूस के साथ होने के अमेरिका व अन्य देशों की सोच से बिलकुल उलट है। गौरतलब है कि भारत ने अमेरिकी प्रतिबंध और चेतावनी के बावजूद रूस से सस्ते में तेल खरीद का सौदा किया। यहां तक कि अमेरिका के डिप्टी एनएसए दलीप सिंह के विवादित बयान की कड़े शब्दों में निंदा की। भारत की स्थिति और पहुंच को अमेरिका जानता है। उसे हर हाल में भारत के साथ संबंधों को लचीला बनाए रखना होगा। यही उसके लिए फायदे का विकल्प है। भारतीय कूटनीति का यह स्वर्ण काल कहा जाएगा, जब अमेरिका, रूस, इस्रइल, ब्रिटेन जैसे देश भारत की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं।
Mains exam के दृष्टिकोण से विभिन्न सामाचार पत्रों के लेख
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तपते टापुओं में बदलने लगे हैं हमारे ज्यादातर शहर
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जलवायु परिवर्तन के दौर में गरमी का बढ़ता प्रकोप अनेक चिंताएं उत्पन्न कर रहा है। 11 मार्च से ही गरम हवाओं का समय शुरू हो गया था और अब दिल्ली, लखनऊ, पटना में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पास या ऊपर जाने लगा है। गरमी अभी से ही असहनीय होने लगी है, तो मई से जून मध्य तक पता नहीं, तापमान कितने कीर्तिमान गढ़ेगा?
बेशक शहरों में गरमी से बचने की सुविधाएं कुछ बढ़ी हैं, पर अभी भी बहुत से लोग इनसे वंचित हैं। विवेक शनदास व उनके सहयोगी अनुसंधानकर्ताओं ने विभिन्न देशों में किए गए शोध के आधार पर बताया है कि अनेक शहरों में सबसे निर्धन, प्रवासियों व भेदभाव सहने वाले समुदायों की जो बस्तियां हैं, प्राय: वही सबसे अधिक गरमी प्रभावित क्षेत्र के रूप में पहचानी गई हैं। इस अनुसंधान से यह भी पता चलता है कि एक शहर के सभी क्षेत्र गरमी के प्रकोप से समान रूप से प्रभावित नहीं होते हैं। जहां अधिक हरियाली है, पेड़ हैं, वहां गरमी का वार अपेक्षाकृत कम है, जहां पूरा क्षेत्र सीमेंट-कंक्रीट के निर्माणों व सड़कों से भरा पड़ा है, वहां गरमी अधिक होती है।
प्राय: किसी भी शहर के लिए एक ही तापमान बताया जाता है, पर वास्तव में एक ही शहर के विभिन्न क्षेत्रों के तापमान में बहुत अंतर होता है। 10 डिग्री सेल्सियस या उससे भी अधिक का अंतर एक ही महानगर या बड़े शहर के भीतर देखा जा सकता है।
कच्ची बस्तियों में गरमी भी ज्यादा है और गरमी की मार से बचने के उपाय भी कम हैं। इन बस्तियों में पानी की भी कम आपूर्ति होती है और बिजली कटौती भी खूब होती है। इन बस्तियों के वृद्ध व पहले से कमजोर स्वास्थ्य के लोगों पर चरम गरमी के दिनों में विशेष ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन क्या हम दे पा रहे हैं? इस विषय पर कार्य कर रहे वैज्ञानिक जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के बेंजामिन जैटचिक ने बताया है कि गरमी के प्रकोप से उन लोगों की स्थिति बिगड़ सकती है, जो सांस व हृदय संबंधी समस्याओं से त्रस्त हैं।
हमारे शहरों में बेघर लोगों को प्राय: सबसे निर्धन माना गया है। बेघर बच्चों की संख्या भी बहुत अधिक है। उनके लिए जो नियोजन पहले किया गया व जो आश्रय स्थल बनाए गए, उनमें मुख्य फोकस इस ओर रहा है कि सबसे अधिक सर्दी के दिनों में उन्हें राहत देनी है, पर जलवायु परिवर्तन के इस दौर में गरम दोपहरियों व लू से भी राहत देना बहुत जरूरी हो गया है। इसे ध्यान में रखते हुए बेघर लोगों के लिए नियोजन व कार्यों में भी जरूरी बदलाव करने होंगे। शहरों में हमें सुधार के लिए पुख्ता अध्ययन करते हुए उपाय करने होंगे। पर्यावरणविदों के अनुसार, शहरों में अधिक तापमान के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं। आधुनिक शहरों का आकार-प्रकार वायु के बहाव के हिसाब से ठीक नहीं है। गांव में हवा रुकती नहीं है, लेकिन शहरों में ऊंची इमारतों की वजह से हवा रुकती है और बेचैनी बढ़ती है। शहर रेगिस्तान की तरह होने लगे हैं। कई जगहों पर किसी वनस्पति का नामो-निशान नहीं होता है, ऐसे इलाकों पर बारिश भी बेअसर होती है। वाष्पीकरण कम होता है और गरमी बढ़ जाती है।
शहरों में गरम घाटियां बनने लगी हैं। ऊंची इमारतों के बीच गरमी के टापू विकसित हो रहे हैं। शहरों में बढ़ता तापमान नमी और आर्द्रता को भी कम कर देता है, जिससे गरमी असह्य होने लगती है। शहरी धुंध भी एक बड़ी समस्या बनकर उभर रही है। कई शहरों में फैली वायु प्रदूषण की धुंध एक लघु ग्रीनहाउस परत के रूप में कार्य करने लगती है, जो शहरी क्षेत्रों की गरमी को बाहर निकल जाने से रोकती है। शहरों में मानव जनित ऊष्मा भी बहुत बढ़ रही है। जीवाश्म ईंधन के अधिकतम उपयोग से भी शहरी तापमान बढ़ रहा है। सच यह है कि हम शहर को रहने लायक बनाने की दिशा में बडे़ उपाय नहीं कर पा रहे हैं। शायद आम लोगों और सरकारों केलिए यह चिंता का विषय नहीं है। क्या अपने देश में किसी भी पर्यावरण सुधार के लिए अदालतों का सहारा लेना मजबूरी है?
बेशक, बसावट सुधारने से हरियाली बढ़ाने तक बहुत काम हैं, जो हमें करने चाहिए। स्थानीय प्रजाति के वृक्षों की संख्या बढ़ाने व परंपरागत जलस्रोतों की रक्षा पर अधिक ध्यान देना जरूरी है। प्राय: देखा गया है कि शहरी वृक्षारोपण में सजावटी किस्म के पौधों को चुन लिया जाता है, जबकि जरूरत अधिक छाया देने वाले स्थानीय पेड़ों की है, जिनमें प्राय: अधिक पक्षी व अन्य छोटे जीव भी आश्रय प्राप्त कर सकते हैं। बरगद, नीम, पीपल, आम, जामुन जैसे पेड़ इस दृष्टि से बहुत उपयोगी रहे हैं, लेकिन देखिए कि हमारे आसपास ऐसे कितने पेड़ हैं? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शहर केवल हमारे लिए नहीं हैं, उन सभी जीव-जंतुओं के लिए भी हैं, जो शहर में मिटने लगे हैं या शहर छोड़ जाने लगे हैं।